CONGRESS FAILURE: वर्षों सत्ता में रहने का अनुभव होने के बाद भी आखिर क्यों विपक्षी गठबंधन को टूटने से बचाने में नाकाम रही कांग्रेस। क्षेत्रीय दलों के साथ चर्चा में सबसे बड़ी समस्या यह है कि कांग्रेस अपने और उन दलों के भूमिका को स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं कर पा रही है। गठबंधन में एक दल की अधिक महत्वपूर्णता होती है, जैसे कि यूपीए में कांग्रेस या NDA में बीजेपी। हालांकि, वर्तमान में परिस्थितियाँ विभिन्न हैं, यहां सभी दल समान हैं। टीएमसी, डीएमके आदि दल इस लिस्ट में शामिल हैं।
इसके अलावा, जिन राज्यों में कांग्रेस और बीजेपी के बीच प्रतिस्पर्धा है, वहां कांग्रेस कमजोर है, जबकि क्षेत्रीय दल बीजेपी को रोकने में जुटे हैं। इस परिस्थिति में, कांग्रेस में आत्मविश्वास की भी कमी है। कांग्रेसी हाईकमान की इच्छा है कि गठबंधन बने, लेकिन एक दल अपनी शर्तों पर सहमत होना चाहता है। राहुल को आगे बढ़ाने का दबाव बना हुआ है, लेकिन पार्टी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अब भी इतिहास की परंपरा में बनी रही है।
क्या लालफीताशाही रवैया जिम्मेदार है?
सीटों के बंटवारे में हो रही देरी के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण है जिसे कांग्रेस के सिस्टम में मौजूद लालफीताशाही रवैया के रूप में जाना जाता है। पार्टी के अंदर, निर्णय लेने के लिए कई स्तर हैं। जहां क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व में निर्णय लेने और रणनीति तय करने का कार्य होता है, वहीं पार्टी के भीतर यह प्रक्रिया कई स्तरों पर होती है। वर्तमान में, लोकसभा चुनाव गठबंधन समिति ने पार्टी के उच्चतम नेतृत्व द्वारा बनाई गई, प्रदेश इकाइयों के साथ कई हफ्तों तक चलने वाली प्रक्रिया के बाद, अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ समझौता कर रही है।
CONGRESS FAILURE
इन सभी स्तरों पर मानव संबंध तय करने का अंतिम निर्णय हाईकमान को होता है। इस प्रकार, इन विभिन्न स्तरों पर होने वाले मुद्दों और निर्णयों के कारण कई बार क्षेत्रीय दल अपना धैर्य खो सकते हैं। कुछ समय पहले, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने यह कहते हुए कांग्रेस की गठबंधन समिति से सीधे संपर्क करने से इनकार किया था और उन्होंने यह बताया कि वह केवल कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से बातचीत करेंगी। पार्टी की प्रदेश इकाइयों और क्षेत्रीय दलों के सामने अपने अस्तित्व की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण कारण है, जो तालमेल में आ रही समस्याओं के पीछे है।
अधिकांश क्षेत्रीय दलों का प्रभाव एक या दो राज्यों तक ही सीमित है, जहां वे अपनी बढ़त बनाए रखते हैं। जहां इन दलों का बूट पकड़ा हुआ है, वहां वे कांग्रेस को अधिक सीटें देने के लिए तैयार नहीं हैं। चाहे वह उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव हों, बंगाल में ममता बनर्जी हों या दिल्ली और पंजाब में अरविंद केजरीवाल की पार्टी हो। यहां यह भी एक खतरा है कि यदि इन राज्यों में कांग्रेस मजबूत होती है, तो क्षेत्रीय दलों को ही इसका नुकसान होगा। वास्तविकता में, अधिकांश क्षेत्रीय दलों का अधिकार केवल कांग्रेस के वोट बैंक पर है।
इससे इन लोगों को यह खतरा है कि यदि ये राज्यों में पार्टी मजबूत होती है, तो इसका बोझ केवल क्षेत्रीय दलों पर ही आएगा। दूसरी ओर, पार्टी को भी इस सवाल का सामना करना होगा। पार्टी की प्रदेश इकाइयों को यह आभास है कि यदि वह राज्यों में तालमेल के नाम पर अपने घटक दलों के लिए यही रास्ता चुनती रही, तो उसका आधार धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा और सत्ता में पुनर्वापसी मुश्किल होगी। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल के बाद, दिल्ली और पंजाब इसका एक बड़ा उदाहरण है।